राजस्थान का स्थापत्य भाग-10
राजस्थान का मन्दिर शिल्प
➤ राजस्थान में मन्दिर निर्माण के प्रमाण 7 वीं शताब्दी से भी पूर्व मिलते हैं।
➤ मन्दिर शिल्प का चरमोत्कर्ष राजस्थान में 8 वीं से 11 वीं शताब्दी के मध्य देखा जा सकता है।
➤ राजस्थान में झालरापाटन का शीतलेश्वर महादेव का पहला मन्दिर है जिसके पास निर्माण तिथि है।
➤ आठवीं से बारहवीं शती तक का काल गुर्जर-प्रतिहारों का कहा जाता है।
➤ मन्दिर शिल्प निर्माण की दृष्टि से यह काल राजस्थान का स्वर्ण युग है।
➤ मण्डोर, मेड़ता तथा जालौर के गुर्जर-प्रतिहारों के नेतृत्व में जो कला आन्दोलन विकसित हुआ वह ‘महामारू’ शैली कहलाता है।
➤ इस शैली का विस्तार मरू प्रदेश से निकलकर आभानेरी (बांदीकुई), चित्तौड़, बाडौली तक हुआ।
➤ इस वंश के शासक धार्मिक सहिष्णु व कलानुरागी थे, इसलिए इस काल में शैव, वैष्णव, शाक्त तथा जैन मन्दिरों का निर्माण बहुतायत से हुआ।
➤ इस शैली के प्रमुख केन्द्र चित्तौड़, ओंसिया व आभानेरी हैं।
➤ ओसियाँ में बौद्ध कला, जैन कला तथा गुप्त कला का गुर्जर-प्रतिहारकाल में समन्वय देखने को मिलता है।
➤ खुजराहों में मन्दिर कला का जो उत्कर्ष मिलता है उसका आधार प्रतिहारकालीन गुर्जर मारू अथवा महामारू शैली ने ही तैयार किया है।
➤ अलवर जिले की मन्दिरों की श्रृखंला दसवी शताब्दी की है।
➤ हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ जैन मन्दिरों का भी निर्माण करवाया गया।
➤ ओंसिया में गुर्जर-प्रतिहार शासक वत्सराज ने 8 वीं शताब्दी में जो महावीर जी का जैन मन्दिर बनवाया था, वह अब तक का प्राचीनतम जैन मन्दिर है।
➤ माउण्ट आबू के देलवाड़ा जैन मन्दिर वास्तुकला के बेजोड़ नमूने हैं।
काम के नोट्स:
राजस्थान की चित्रकला