राजस्थान का स्थापत्य भाग-11
राजस्थान का मन्दिर शिल्प
➤ राजस्थान में 12 वीं से 16 वीं शताब्दी के मध्य निर्मित मन्दिर सुरक्षा की दृष्टि से दुर्गो में ही बनते रहें ताकि शत्रु से सुरक्षित रह सके।
➤ 17 वीं शताब्दी और उसके बाद मुगल शासकों के डर से उत्तरी भारत के मठों व मन्दिरों के आचार्य व पुजारी देव मूर्तिया लेकर राजाओं से आश्रय पाने के अभिप्राय से राजस्थान आ गये।
➤ इनमें राधावल्लभ, निम्बार्क व पुष्टि मार्ग के आचार्य विशेष उल्लेखनीय है।
➤ इस क्रम मे इन विचार धाराओं के मन्दिर सिहाड़, नाथद्वारा, कांकरोली, चारभुजा, कोटा, डूंगरपुर एवं जयपुर आदि स्थानों पर बनाये गये।
➤ इस प्रकार मन्दिर स्थापत्य कला राजस्थान की अदभुत विरासत हैं।
➤ मूर्तिकला में, आभानेरी, अटरू, आबू, नागदा, चित्तौड़ किराड़, ओंसियाँ, सीकर आदि स्थानों की अर्धनारीश्वर व नृत्य मातृकायें मूर्तियाँ दर्शनीय है।
➤ गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में राजस्थान की मूर्ति शिल्प में नवीन, भरतपुर,बैराठ, डूंगरपुर आदि स्थानों से शिव, विष्णु, यक्ष आदि की मूर्तियांं प्राप्त हुई हैं।
➤ भरतपुर की बदलदेव की 27 फुट ऊँची मूर्ति इस कला का उदभुत उदाहरण हैं।
➤ गुर्जर-प्रतिहारों का काल देवी-देवताओं की मूर्तियों में माधुर्य एवं कोमलता के साथ साथ शक्ति व शौर्य का मिश्रण मिलता है।
➤ उदयपुर में नागदा का सास-बहू मन्दिर की लक्षण कला अति उत्तम है।
➤ ओंसिया के मंदिर में एक आभीर कन्या का अंकन दर्शनीय है।
➤ अर्थूणा (बांसवाड़ा) गाँव में शिल्प व स्थापत्य का प्राचीन खजाना खेतों में बिखरा पड़ा है।
➤ यह पुरातात्विक व धरोहर के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहां शिव मंदिर हैं।
➤ ऐसे ही आभानेरी (बाँदी कुई) का स्थापत्य अवशेष व मूतियाँ चारों ओर बिखरा पड़ा है, जहाँ पर हर्षत माता का मन्दिर है।
काम के नोटस