राजस्थान में समाज सुधार आंदोलन
कन्या वध
19वीं सदी का राजपूताना यदा-कदा कन्या वध की कुप्रथा से अभिशप्त था। कर्नल जेम्स टॉड ने दहेज प्रथा को इसका एक प्रमुख कारण माना। दहेज और कन्या वध दोनों समाज के नासूर थे और एक दूसरे से जुड़े हुए थे।
कन्या वध उन्मुलन के प्रयास:
कन्या वध को रोकने के लिये अनेक कदम उठाये गये सर्वप्रथम मेवाड़ क्षेत्र में कन्या वध को रोकने के लिये महाराणा ने ब्रिटिष एजेन्ट पर दबाब डालकर कानून बनवाया। मेवाड़ के क्रम मे ही कोटा ने भी कन्या हत्या निषेध बनाया। 1839 मे जोधपुर महाराजा ने कोड आॅफ रूल्स बनाये। 1844 मे जयपुर महाराजा ने कन्या वध अनुचित घोषित किया। यद्यपि बीकानेर में कानून तो नहीं बनाया लेकिन 1839 में गया यात्रा के समय महाराजा ने सामन्तो को शपथ दिलाई कि वे अपने यहां कन्या वध नहीं होने देंगे। 1888 के बाद कन्या वध की घटनाये लगभग समाप्त सी मानी जाती है।
अनमेल व बाल विवाह:
छोटी उम्र की कन्याओं का उनसे कई अधिक बड़ी उम्र के व्यक्ति से विवाह कर दिया जाता था। इस प्रकार के विवाह के पीछे मुख्य कारण आर्थिक परेशानियां थी। दासी प्रथा भी एक कारण था। इसके अनेक दुष्परिणाम थे। अनमेल विवाह के बाद लड़की अक्सर विधवा हो जाती थी और उसे पूरा जीवन कठिनाइयों में गुजारना पड़ता था। अवयस्क अवस्था के लड़की-लड़कों का विवाह की कुप्रथा भी सामान्य थी जिससे समाज के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा।
अनमेल व बाल विवाह रोकने के प्रयास:
अनमेल एवं बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं को प्रतिबन्धित करने के लिये समाज सुधारक दयानन्द सरस्वती ने आवाज उठाई। 10 दिसम्बर 1903 में अलवर रियासत ने बाल विवाह और अनमेल विवाह निषेध कानून बनाया, राजपरिवारों सेे भी इसका कड़ाई से पालन करवाया गया।
दास-प्रथा
भारत में दास प्रथा प्राचीन काल से अस्तित्व में थी, राजपूताना भी इससे अछूता नहीं रहा। कालान्तर में यह व्यवस्था अधिक विकसित हुई, यहाँ दासों की संख्या के साथ कुल एवं परिवार की प्रतिष्ठा का आकलन होने लगा था। दास मुख्यतः चार प्रकार के होते थे- बन्धक जो युद्ध के अवसर पर बंदी बनाये गये, स्त्री और पुरुष। दूसरे विवाह के अवसर पर दहेज दिये जाने वाले स्त्री पुरुष, तीसरे स्थानीय सेवक सेविकायें, चौथे – वंशानुगत सेवक और सेविकायें थे जो कि स्वामी की अवैध संतान होते थे उनसे उत्पन्न पुत्र-पुत्री वंशानुगत रूप से सेवा करते रहते थे। इनकी सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी बिना शासक की अनुमति के ये विवाह नहीं कर सकते थे।
डाकन-प्रथा
डाकन प्रथा को ब्रिटिश अधिकारियों ने एक गंभीर कुप्रथा माना। यह लोगों का अन्धविश्वास था। 1853 में डाकन प्रथा की जानकारी मिलने पर ए.जी.जी. राजपूताना ने अमानवीय प्रथा को प्रतिबंधित करने हेतु कानून बनाने के लिये शासको पर दबाव बनाया। 1853 में मेवाड़ रेजीडेन्ट कर्नल ईडन के परामर्श पर मेवाड़ महाराणा जवान सिंह ने डाकन प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।