Rajasthan gk in hindi-social reforms in rajasthan part-2

Rajasthan gk in hindi-social reforms in rajasthan part-3

राजस्थान में सामाजिक सुधार का इतिहास

देश हितेषिणी सभा

कवि श्यामलदास ने वीर विनोद में 2 जुलाई 1877 में उदयपुर में स्थापित देश हितेषिणी सभा का उल्लेख किया है। वह स्वयं इस संस्था के सदस्य थे। 
यह मेवाड़ रियासत तक ही सीमित थी, इस सभा का उद्देश्य विवाह सम्बन्धित कठिनाइयों का समाधान करना था, इसमें राजपूतों के वैवाहिक कार्यों पर दो प्रकार से प्रतिबन्ध लगाये- प्रथम विवाह खर्च सीमित करना। 

दूसरा बहुविवाह निषेध के नियम बनाये। मेवाड़ की देष हितेषिणी सभा का उपरोक्त प्रयत्न पूर्ण सफल नहीं हो पाया क्योंकि इसमें ब्रिटिश सरकार का पूर्ण सहयोग नहीं मिला था। 

कमिश्नर रिपोर्ट से पता चलता है कि 1886 में मेवाड़ रेजीडेन्ट द्वारा ए.जी.जी. को भेजी गई रिपोर्ट मे मेवाड़ के देष हितेषिणी सभा के नियमों में कुछ परिवर्तन करके अन्य रियासतो ने विवाह प्रथा में सुधार सम्बन्धित कदम उठाये हैं। 

इस प्रकार सामाजिक सुधार सम्बन्धित रियासत का पहला आंशिक सफल कदम था, बाद में मेवाड़ की तर्ज पर अन्य रियासतो में भी हितेषिणी सभा बनाई गई। 

वाल्टर कृत हितकारिणी सभा

1887 ईं में वाल्टर राजपूताना का ए.जी.जी. नियुक्त हुआ। उसने अक्टूबर 1887 में रियासतों मे नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट को राजपूतों के विवाह खर्च पर नियम बनाने के लिए परिपत्र लिखा। 

10 मार्च, 1888 को अजमेर में भरतपुर, धौलपुर और बांसवाड़ा को छोड़कर कुल 41 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में लड़के और लड़कियों की विवाह आयु निश्चित करने और मृत्यु भोज पर खर्च नियंत्रित करने के प्रस्ताव रखे गये। 

जनवरी 1889 में वाल्टर ने दूसरा सम्मेलन आयोजित किया जिसमे पुराने सदस्यों में से केवल 20 सदस्य आये। इस सम्मेलन में इस कमेटी का नाम ‘वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा’ रखा गया। 

एक सप्ताह के सम्मेलन में आंकड़ों सहित सुधारो की प्रगति सम्बन्धी रिपोर्ट तैयार की गई और प्रति वर्ष सम्मेलन के आयोजन की व्यवस्था की, जिसमें सुधार कार्यो का आकलन करके प्रशासनिक रिपोर्ट के लिये भेजा जाये। 

1936 के वाल्टर सभा भंग करदी गई। 1889 से 1938 के मध्य वाल्टर सभा के मुख्य कार्य निम्न थेः- 
1. बहुविवाह प्रथा पूर्णतः समाप्त कर दी जाये। 
2. विवाह आयु निश्चित करदी गई, लड़की कम से कम 14 वर्ष और लड़का कम से कम 18 वर्ष का होना चाहिये।
3. टीके का आशय लड़की के पिता पक्ष की ओर ने भेजे गये उपहार से था। रीत का तात्पर्य लड़के के पिता पक्ष की ओर से भेजे गये उपहार से था। 
 
विवाह के समय प्रचलित उक्त टीका और रीत प्रथा पर पूर्णत प्रतिबन्ध लगा दिये गये। 

इसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे सामाजिक नियमों का गठन किया गया जिनसे कुप्रथाओं का यदि अन्त न हुआ तो भी उनमें कमी अवश्य आई। 

वाल्टर कृत हितकारणी सभा ने अपने कार्यकाल में सुधार सम्बन्धित अनेक कदम उठाये, लेकिन यह नौकरशाही व्यवस्था मात्र बन कर रह गई। 

सामाजिक सुधार हेतु कोई सक्रिय प्रभावशाली भूमिका नही निभा पाई लेकिन शासक वर्ग को सुधार हेतु मानसिक रूप से प्रभावित करने में सक्षम थी।

सामाजिक कुप्रथाओं को रोकने के भारतीय प्रयास

सामाजिक कुप्रथाओं को रोकने के लिये सामाजिक प्रयत्न भी महत्वपूर्ण रहे, स्वामी विवेकानन्द की 1891 में यात्रा से नई जागृति आई जिसके परिणामस्वरूप धर्म से जुड़कर जो कुप्रथाये प्रचलित हो गई थी उन्हें तर्क के आधार पर समझकर लोगों ने मानने से इन्कार किया। 

राजपूताना मे सर्वाधिक प्रभाव स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाज संगठन का पड़ा। दयानन्द स्वामी एक सन्त थे जो ईश्वर और आध्यात्मिकता के साथ साथ सामाजिक जीवन में व्यक्ति के अस्तित्व और उसके उत्तरदायित्व को समझाने का विवेक लोगों में विकसित कर पाये। 

उन्होंने सामाजिक अन्याय से संघर्ष का साहस और उत्साह पैदा किया। उन्होंने वाद-विवाद और गोष्ठियों को प्रोत्साहित किया जिससे समाज में तार्किक शक्ति विकसित हो। 

उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया जिससे वे अपने साथ होने वाले अन्याय से लड़ सकती है। उन्होंने जाति-प्रथा, छूआ छूत, बाल विवाह, अनमेल विवाह का विरोध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया एवं राष्ट्रीय भावना को भी प्रोत्साहित किया। 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने सामाजिक चेतना अभियान में शासक और कुलीन वर्ग की भूमिका पर विशेष बल दिया। आम जन को समाज सुधार के लिये संगठित रूप से कार्य करने हेतु आर्य समाज और परोपकारिणी सभा के सदस्य सक्रिय हुए।


समाज सुधारकों द्वारा किये कार्यो का प्रभाव काल 1840-1919 माना जाता है 1919-1947 तक समाज सुधार कार्य राजनीतिक आन्दोलन के मार्गदर्षन में चला गया। 

राजस्थान आन्दोलन के सेवा  संघ, कांग्रेस के नेतृत्व में ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रो तक में सामाजिक सुधार हेतु समर्पित हो गये। 

उन्होने जगह जगह शिक्षक संस्थायें खोली, गांधी जी ने स्वदेशी आन्दोलन चलाते हुए व्यावसायिक षिक्षा को भी स्वावलम्बन का माध्यम बनाया।

हरिजनों को शिक्षित करने के अतिरिक्त उन्हें मन्दिरों में प्रवेश हेतु भी आन्दोलन किये तथा कार्यकर्ताओं ने पखाने तक साफ किये, जिससे कार्य की महत्ता सिद्ध हो जातिगत आधार पर कोई कमजोर या हीन नहीं माना जाये विधवाओं का और वेश्याओं का विवाह आदि कार्यक्रमों को केवल जागृति कार्यक्रम के रूप में नही चलाये, वरन अनेक कार्यकर्ताओं ने इनसे विवाह करके समाज के समक्ष उदाहरण भी रखे। 

1919-1947 के मध्य जो राजनीतिक आन्दोलन के साथ सामाजिक सुधार हुये थे वे इस दृष्टि से महत्वूर्ण थे कि यह उपदेशात्मक नहीं थे, वरन प्रयोगात्मक थे। 

स्वंय कार्यकर्ता कुरीतियों को समाप्त करके एक अंहिसात्मक समाज स्थापित करने के लिये गाँधी के रचनात्मक आन्दोलन के इस सिद्धान्त से प्रेरित थे कि ‘अंहिसात्मक राष्ट्र भक्ति और समूह जीवन की एक आवश्यक शर्त है।’

काम के नोट्स:

 
 
 
 

 

 

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