General judicial terms related to women and child rights | rasnotes.com

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बाल अधिकारों और महिला अधिकारों पर पोस्ट की श्रृंखला के बाद यह पोस्ट महिला एवं बा​ल अधिकारों से सम्बन्धित सामान्य न्यायिक शब्दावली के सर्वाधिक उपयोगी प्रावधानों पर रोशनी डालेगी। मुश्किल कानूनी भाषा से अलग हमनें यह पोस्ट सरल भाषा में तैयार करने की कोशिश की है ताकि आम आदमी को आसानी से समझ में आ सके। राजस्थान की प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ ही यह पोस्ट लॉ से सम्बन्धित परीक्षाओं, राजस्थान न्यायिक सेवा, पुलिस भर्ती परीक्षा और राजस्थान कॉन्स्टेबल भर्ती परीक्षा के लिये बहुत उपयोगी है।
-कुलदीप सिंह चौहान
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महिला एवं बा​ल अधिकारों से सम्बन्धित सामान्य न्यायिक शब्दावली


भारतीय संविधान के अनु. 14 में भारत के सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण प्रदान किया गया है अर्थात भारत में कानून का शासन है। 

यहां कानून का शासन का आशय है कि सभी कानून देश के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। कानून से ऊपर कोई नहीं है। हमारा कानून धर्म, जाति, और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता। 

संविधान में शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त के आधार पर कार्यपालिका, व्यस्थापिका और न्यायपालिका के कार्यों का विभाजन किया गया है। कानून निर्माण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा, कानून को लागू करने का कार्य कार्यपालिका द्वारा तथा कानून का पालन कराने का कार्य न्यायपालिका द्वारा किया जाता है। शासन के तीनों अंग संविधान के अन्तर्गत निर्मित कानूनों के तहत कार्य करते हैं। 

भारत चूंकि राज्यों का संघ है इसलिए केन्द्र व राज्यों के बीच में शक्तियों का बंटवारा किया गया है। संविधान की 7वीं अनुसूची में तीन सूचियों का उल्लेख है, जिनमें संघ, राज्य व समवर्ती सूचियों के द्वारा केंद्र व राज्य के विषयों का उल्लेख किया गया है। वर्तमान में केन्द्र सूची में 100 विषय, राज्य सूची में 61 व समवर्ती सूची में 52 विषय है। कानून एवं व्यवस्था राज्य सूची का विषय है।

आपराधिक कानून और प्रक्रिया समवर्ती सूची के विषय है। समवर्ती सूची के विषयों में केंद्र व राज्य दोनों कानून बना सकते हैं, लेकिन संघ द्वारा निर्मित कानून प्रभावी होता है। राज्य का कानून उस सीमा तक गौण होता है जहां तक वह संघीय कानून से भिन्न हो। 

संविधान में ही व्यक्ति के मूल अधिकारों का भी वर्णन किया गया है तथा राज्य पर यह जिम्मेदारी डाली गई है कि वह व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा सुनिष्चित करेगा। मूल अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय द्वारा रिट अधिकारिता का प्रयोग किया जाता है। 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार का वर्णन किया गया है। इस अधिकार के तहत किसी भी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता को केवल एक तर्कसंगत एवं न्यायपूर्ण कानूनी प्रक्रिया के तहत ही छीना जा सकता है।

इसी अधिकार को ध्यान में रखते हुए अपराध एवं दण्ड के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई है। समाज एवं राज्य के प्रति किये गये अपराध, उनके दण्ड का विवरण भारतीय दण्ड संहित संहिता 1860 और आपराधिक कानून को किस तरह लागू किया जाएगा इसकी प्रक्रिया का वर्जन दण्ड प्रक्रिया संहिता-1973 में किया गया है। 

पीड़ित और अपराधी दोनों के लिए प्रक्रिया का ब्यौरा इसमें दिया गया है। जिन सबूतों के आधार पर अपराधी को दण्ड दिया जाता है उसका विवरण साक्ष्य अधिनियम 1872 में दिया गया है। 

हमारे देश मे दो तरह के कानून है फौजदारी कानून व दीवानी कानून। फौजदारी कानून ऐसे कार्यों से संबंधित है जिन्हें कानून मे अपराध माना जाता है जैसे चोरी, दहेज, हत्या आदि। 

दीवानी कानून का संबंध व्यक्ति विशेष के अधिकारो के उल्लंघन या अवहेलना से होता है जैसे जमीन की बिक्री का किराया, तलाक आदि।

पुलिस का काम किसी अपराध के बारे में मिली शिकायत को दर्ज करना, जांच करना व आरोप-पत्र न्यायालय में दाखिल करना है। कोई व्यक्ति अपराध के लिए दोषी है या नहीं यह न्यायपलिका द्वारा तय किया जाता है। 

सजा सुनाने का कार्य भी न्यायपालिका द्वारा किया जाता है। फैसला साक्ष्यों के आधार पर कानून के हिसाब से सुनाया जाता है। पुलिस किसी भी अपराध की सूचना प्राप्त होने पर थ्ण्प्ण्त्ण् (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज करती है। जिसमें अपराध एवं शिकायताकर्ता का पूर्ण विवरण होता है। शिकायतकर्ता को थ्ण्प्ण्त्ण् की एक प्रति मुफ्त पाने का कानूनी अधिकार होता है।

संज्ञेय अपराध

ऐसे अपराध जिनमें पुलिस किसी व्यक्ति को अदालत की अनुमति के बिना भी गिरफ्तार कर सकती है।

असंज्ञेय अपराध

ऐसे अपराध जिनमें अदालत की अनुमति के बाद ही पुलिस किसी अपराधी को गिरफ्तार कर सकती है।

संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को किसी अपराध में बचाव का मौलिक अधिकार प्राप्त है। संविधान के अनुच्छेद 39 में ऐसे नागरिकों को वकील उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य को दी गई है जो गरीबी या किसी ओर वजह से वकील का खर्च वहन नहीं कर सकते।

अनुच्छेद 22 के तहत ही फौजदारी कानून में गिरफ्तार प्रत्येक व्यक्ति को निम्नांकित अधिकार दिए गए हैं –

(1) गिरफ्तारी के समय उसे यह जानने का अधिकार है कि उसकी गिरफ्तारी का कारण क्या है।

(2) गिरफ्तारी के 24 घण्टे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना आवश्यक है।

(3) गिरफ्तारी के दौरान या हिरासत में किसी भी तरह का दुव्र्यवहार या यातना नहीं दी जा सकती।

(4) पुलिस हिरासत मे दिए गए इकबालिया बयान को आरोपी के खिलाफ सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

(5) 15 साल के कम उम्र के बालक और किसी भी महिला को केवल सवाल पूछने के लिए थाने में नहीं बुलाया जा सकता।

(6) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के सगे-संबंधियों को सूचित किया जाना आवश्यक है।
अपराध एवं न्याय व्यवस्था के संदर्भ में निम्न तथ्यों की जानकारी भी उपयोगी है-

लोक अदालत के बारे में जानकारी- लोक अदालत क्या होती है?

1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के तहत आपसी समझाइस व राजीनामे से विवादों के निपटारे के लिए लोक अदालत का प्रावधान किया गया है। लोक अदालत के फैसले सभी पक्षों को अनिवार्य रूप से मानने होते हैं। इसके फैसले के विरूद्ध कोई भी पक्ष किसी न्यायालय में अपील नहीं कर सकता। राज्य में सभी जिला मुख्यालयों पर स्थायी लोक अदालतें काम करती हैं। विवादों को निपटाने की यह एक वैकल्पिक न्याय प्रणाली (Alternative System of Justice) है। 

जनहित याचिका क्या होती है-जनहित याचिका के बारे में जानकारी

ऐसे व्यक्ति जो अपने अधिकारों के प्रति किसी भी कारण से जागरुक नहीं होते, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए किसी अन्य व्यक्ति या संस्था द्वारा न्यायालय में दर्ज किए जाने वाले मुकदमें को जनहित याचिका कहा जाता है। 

यह उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में दर्ज की जा सकती है। सार्वजनिक महत्व के मुद्दे पर न्यायालय स्वयं भी प्रसंज्ञान ले सकता है। न्याय की पहुंच प्रत्येक व्यक्ति तक हो इसलिए सर्वोच्य न्यायालय ने 1980 के दशक मे च्प्स् (जनहित याचिका) की व्यवस्था विकसित की है। जस्टिस पी.एन. भगवती द्वारा जनहित याचिका को लोकप्रिय बनाया गया। 

विधिक सहायता कैसे मिलती है- किसको मिलती है विधिक सहायता?

समाज के कमजोर वर्गों को मुकदमें में पैरवी के लिए वकील की निःशुल्क सेवा उपलबध कराई जाती है। ऐसे व्यक्ति जिनकी वार्षिक आय 1,25,000/- से कम हो या वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिला, निराश्रित वर्ग के सदस्य हो तो निःशुल्क कानूनी सहायता सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। 

विधिक साक्षरता के बारे में जानकारी

कानून के बारे में जानकारी का अभाव अपराध के दण्ड से नहीं बचा सकता। इसलिए विधिक साक्षरता के तहत नागरिकों को मूल अधिकारों व अन्य आवश्यक कानूनों की जानकारी उपलब्ध कराई जानी आवश्यक है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर नाल्सा एवं राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण कार्यरत हैं। 

नालसा – Full form of NALSA – National Legal Service Authority 

(1) संविधान के अनुच्छेद 39 (क) में सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व निर्धारित किया गया है। इसी अनुच्छेद के तहत गरीबों तथा कमजारे वर्गों के लिए राज्य द्वारा निःशुल्क विधिक सहायता करना राज्य का दायित्व तय किया गया है। 

(2) इसी परिप्रेक्ष्य में 1987 में पारित विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के तहत राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है। 

(3) जरूरतमंदों को कानून की बुनियादी जानकारी उपलब्ध कराना तथा आवश्यक निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराना नालसा का प्रमुख उद्देश्य है। 

(4) इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजस्थान में राजस्थान राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन 7.7.1998 को किया गया। (RSLSA)

(5) रालसा के वर्तमान मुख्य संरक्षक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की इंद्रजीत महांती व कार्यकारी अध्यक्ष श्री संगीत लोढा है।

ग्राम  न्यायालय क्या होता है?

ग्राम पंचायत स्तर पर शीघ्र व सुलभ न्याय के लिए ग्राम न्यायालय एक्ट 2008 के तहत ग्राम न्यायालयों की स्थापना की गई है। राजस्थान में पहला ग्राम न्यायालय जयपुर जिले के बस्सी में खोला गया। इन ग्राम न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है।

नागरिक अधिकार आंदोलन

यह आंदोलन 1950 के दशक के अन्त में शुरू हुआ। 1955 में अमेरिका मेे रोजा पार्क नामक अफ्रिकी-अमेरिकन महिला ने बस में अपनी सीट गौरे को देने से मना किया और अमेरिका मे असमानता के विरूद्ध व्यापक आंदोलन शुरू हुआ जो नागरिक अधिकार आंदोलन (Civil Right Movement) कहलाता है। 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम द्वारा नस्ल, धर्म और राष्ट्रीय मूल के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया।

राॅलेट एक्ट 10 मार्च 1919 को लागू किया गया था। इसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए चलाए जेल मे डाला जा सकता था। इस कानून के तहत डा. सैफुद्दीन व 1919 को सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरोध में प्रदर्शन में जनरल डायर ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलवा दी थी।



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