बारां: जिला परिक्रमा
बारां जिले का संक्षिप्त इतिहास
बारां चौदहवीं-पद्रहवीं शताब्दी में सोलंकी राजपूतों के अधीन था। उस समय इसके अन्तर्गत 12 गांव आते थे, इसीलिए यह नगर बारां कहलाया। बारां समुद्र तल से 262 मीटर की ऊंचाई पर कालीसिंध, पार्वती व परवन नदियों के बीच स्थिति है। मार्च, 1948 में संयुक्त राजस्थान बना था, उस समय उदयपुर संयुक्त राजस्थान की राजधानी और बारां उसमें एक जिला था। मार्च, 1949 को राजस्थान के पुनर्गठन होने पर बारां जिला मुख्यालय को तोड़कर उपखण्ड बन गया। आगे चलकर 10 अप्रैल, 1991 को पुनः बारां को जिले का दर्जा दे दिया गया।
प्राकृतिक संरचना
बारां जिला राजस्थान के मानचित्र में दक्षिण-पूर्वी भू-भाग पर 24.25 से 25.55 उत्तरी अक्षांश तथा 76.12 से 76.26 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। मध्यप्रेदश के मुरेना, शिवपुरी व गुना जिलों की सीमांएं पूर्व में, मंदसोर जिले की सीमाएं दक्षिण तथा राज्य के कोटा जिले की सीमाएं उत्तर-पश्चिम तथा झालावाड़ जिले की सीमाएं दक्षिण में स्पर्श करती हैं।
दर्शनीय स्थल
रामगढ़
रामगढ़ के मन्दिरों से प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि रामगढ़ दसवीं शताब्दी में मलयवर्मन तथा तेरहवीं शताब्दी में मेढ़त वंशीय राजाओं के अधीन था। इसके बाद रामगढ़ क्रमशः खींचियों, गोड़ वंश, मालवों के अधिपत्य में रहा। अन्त में यहां बूंदी में हाड़ाओं का वर्चस्व स्थापित हुआ। बाद में यह परगना कोटा के आधिपत्य में चला गया। रामगढ़ की डूंगरी के घेरे में माला की तलाई पुष्कर सागर, बड़ा व नोलखा तालाब हैं। माता की तलाई में बाहर महीने पानी रहता है। पांचवां तालाब रावण जी की तलाई रामगढ़ गांव से बाहर है। रामगढ़ की डूंगरी ज्वालामुखी के कारण तश्तरी की बनावट में चारों ओर से गोलाकार है, जहां सरोवर, मन्दिर, बाग, कुएं, बावड़िया, छतरियां, मठ, समाधियां आदि हैं। रामगढ़ में प्रसिद्ध देवी मन्दिर है जहां तक पहुंचने के लिए झाला जालिम सिंह ने 751 सीढ़ियों का निर्माण करवाया था।
भण्डदेवरा
रामगढ़ की प्राचीन, शैव प्रतीक, वाममार्गीय कलाओं से युक्त शिव मन्दिर 10 वीं सदी में निर्मित है जो खजुराहों शैली पर आधारित है। मन्दिर पर उत्कीर्ण मिथुन-मूर्तियों के कारण ही इसका नाम भण्डदेवरा पड़ा। यह मन्दिर रामगढ़ डूंगरी के बीच मे सरोवर के किनारे दो छोटे देवालयों के साथ बना हुआ है । जो अब पुरातत्व विभाग के अधीन है। शिवालय के गर्भगृह में लगे एक शिलालेख के अनुसार सम्वत् 1219 में इस मन्दिर का निर्माण हुआ। यहां पूर्व में 108 मन्दिरों का समूह था। इसी मन्दिर में 10 बड़े 18 छोटे खम्भों पर टिका हुआ सभामण्डप व गुम्बद है। ये खम्भे भी कलात्मक हैं। देवालय पूर्वाभिमुखी तोरणद्वारों से युक्त है। भण्डदेवरा की छत, स्तम्भ, गुम्बद, दीवारें, सभामण्डप, गर्भगृह, प्रतिमाएं, शिखर, सीढ़िया, प्रवेश द्वार, तोरण द्वार, गणेश, विष्णु आदि इसकी प्राचीनता का आभास कराते है।
कपिलधारा
बारां से 50 किलोमीटर दूर स्थित कपिलधारा यहां का प्राकृतिक स्मणीय स्थल है। यहां पानी हमेशा रहता है। किले के पास तालाब की स्थिति बहुत प्रकृतिमय है किले के झरोखों से नयनाभिराम दृश्य अवलोकित होते हैं।
काकूनी
जिलें में छीपाबड़ोद-सारथल मार्ग पर काकूनी का दुर्लभ शिल्पधाम है। परवन नदी के किनारे पहाड़ी पर पूर्व में यहां कभी 108 मन्दिरों की श्रृंखला थी। अब केवल 15-16 देवालयों के ध्वंसावशेष हैं। अटरू के समीप पश्चिम में ऊंचे टीले पर गड़गच्च प्राचीन मन्दिर के खण्डहर आज भी उच्च कोटि की शिल्पकला का बखान करते है। पूर्व में अटलपुरी और अब अटरू, में 14 वीं शताब्दी तक परमार शासकों के मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं। अटरू में राधाकृष्ण मन्दिर के शिव, पार्वती, दुर्गा, गणेश, राधा व कृष्ण आदि की 77 मूर्तियां हैं। पूजा-अर्चना आज भी की जाती है।
सीताबाड़ी
बारां जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक छटा से भरपूर सीताबाड़ी का धार्मिक एवं रमणीय स्थल है। पूर्व के सात कुंडो में से वर्तमान में 3 या 4 कुण्ड ही सलामत है। यहां के आठ फीट गहरे सूरज कुण्ड में यदि सूई भी डाल दी जाए तो वह चमकती है। लक्ष्मण कुण्ड, सीता कुण्ड व वाल्मीकि का आश्रम के साथ सीताबाड़ी यहां की सहरिया जनजाति का प्रमुख आस्था स्थल है।
लक्ष्मीनाथ मन्दिर
मांगरोल तहसील के ग्राम श्रीनाल का पुराना लक्ष्मीनाथ मन्दिर पुरातात्विक महत्त्व की दृष्टि से बेजोड़ है। शिखर बंध मन्दिर के तोरण द्वारा पर हाथी बने हुए हैं। मांगरोल में 45 एकड़ भूमि में शहीद पृथ्वी सिंह हाड़ा की स्मृति में निर्मित बाग भी दर्शनीय है।
जामा मस्जिद
मुगल सम्राट शहजहां द्वारा बसाए गए शाहबाद कस्बे में भव्य जामा मस्जिद का निर्माण लगभग 400 वर्ष पूर्व औरंगजेब द्वारा कराया गया था।
ब्रह्माणी माता
हाड़ौती अचंल के बारां जिले के अन्ता कस्बे से 20 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम सोरसन के समीप ब्रह्माणी माताा का मन्दिर एक विशाल प्राचीन मन्दिर है। चारों ओर ऊंचे परकोटे से घिरे इस मन्दिर को शैलाश्रम मन्दिर गुफा अथवा मन्दिर भी कहा जाता है। समूचे विश्व में संभवतः यह अपने किस्म का अकेला मन्दिर हैं, जहां देवी की पीठ का श्रृंगार होता है, पीठ की पूजा-अर्चना की जाती है, पीठ को ही भोग लगाया जाता है और भक्तगण भी देवी की पीठ के ही दर्शन करते हैं। मन्दिर की संरचना अदभुत है। मण्डप का गुम्बद कलापूर्ण है। विगत 400 वर्षों से मन्दिर में अखण्ड ज्योति जल रही है। नवरात्रा के दिनों में मन्दिर में चार अखण्ड जयोतियां जलती हैं। जबकि सामान्यतः दो अखण्ड ज्योतियां जलती हैं।
बारां के किले
बारां क्षेत्र में पुरासम्पदा की दृष्टि से मन्दिरों एवं मूर्तियों का तो महत्वपूर्ण स्थान है ही, साथ ही छोटे-बेड़े कई किले यहां विद्यमान हैं। इनमें से शाहबाद एवं शेरगढ़ के किले पुरातत्व की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसके अलावा गूगोर, नाहरगढ़, भंवगढ़, केलवाड़ा, रामबढ़ एवं कस्बाथाना के किले भी दर्शनीय हैं। शाहबाद का किला बारां-शिवपुरी मार्ग पर बारां से 73 कि.मी की दूरी पर स्थित है। यह एक गिरि दुर्ग है जो मुकन्दरा पर्वत श्रेणी की एक पहाड़ी भामती पर स्थित है।
अटरू-खानपुर मार्ग पर बारां से लगभग 55 कि.मी की दूरी पर स्थित है ऐतिहासिक नगर शेरगढ़ जो कभी कोषवर्धन नाम से जाना जाता था नगर के साथ ही एक छोटी पहाड़ी पर शेरगढ़ दुर्ग है। नगर एवं दुर्ग दोनों के परकोटे अभी तक लगभग पूरी तरह सुरक्षित है।
बारां के मेले
सीताबाड़ी का मेला
बारां नगर से पूर्व दिशा में शाहबाद-शिवपुरी-ग्वालियर मार्ग पर 44 कि.मी दूर केलवाड़ा कस्बे के निकट पवित्र धाम सीताबाड़ी है। आदिवासी वनवासी क्षेत्र में यह लोकतीर्थ रूप से मान्य व पूजित है। सीताबाड़ी के बारे में लोक आस्था प्रचलित है कि भगवान राम के सीता के परित्याग के उपरान्त सीता ने अपना निर्वासन काल यहां वाल्मीकि आश्रम में व्यतीत किया था। लवकुश की जन्मस्थली व राम सेना से उनके समर की साक्षी सीताबाड़ी अपने प्राकृतिक सौन्दर्य, भूमि से निकलती जलधारा व सघन आम्र कुंज के कारण भीषण गर्मी में भी आनंददायक शीतलता के लिए विख्यात है। ज्येष्ठ मास की अमावस्या पर यहां विशाल मेला भरता है, जो जिले का सबसे बड़ा लक्खी मेला है। मेले में लाखों आते हैं। वनवासी जनजाती सहरिया परिवारों के लिए सीताबाड़ी का मेला कुंभ मेला है। सीताबाड़ी में सात कुण्ड हैं। वाल्मीकि आश्रम, सीता कुण्ड, लक्ष्मण कुण्ड, सूर्य कुण्ड व नवनिर्मित लवकुश कुण्ड सही दशा में है। पास मे सीताकुटी है। यह मेला पशु मेला भी है। अच्छी नस्ल के पशु विशेषकर बैल, गाय, भैंसों का क्रय-विक्रय होता है।
डोल मेला
बारां जिला मुख्यालय पर भाद्रपद शुक्ला एकादशी (जलझूलनी) जिसे लोक भाषा में डोल ग्यारस भी कहते हैं, को बारां नगर के डोल तालाब के किनारे एक पखवाडे़ में डोल मेला लगता है। प्राचीन वराहनगरी बारां में सातवीं शताब्दी तक के अवशेष मिलते हैं। बारह तालाबों को पाटकर बसे बारां नगर में प्राचीन स्टेडियनुमा डोल तालाब के किनारे प्राचीन समय से डोल मेला आयोजित होता आया है।
रणथम्भोर दुर्ग से लाई गई श्री कल्याणराय जी की प्रतिमा की बूंदी की महारानी द्वारा यहां एक विशाल मन्दिर का निर्माण कराकर प्राण प्रतिष्ठा की गई थी। कोटा राज्य के अधीन रहने से इसके शासक वैष्णव मतानुयायी तथा सगुण कृष्णोपासक होने के कारण ब्रजभूमि के उत्सव बारां में मनने लगे। कृष्ण जन्म के उपरान्त माता यशोदा द्वाराा किया गया जल पूजन ही जनझूलनी एकदशी का पर्व बन गया।
डोल मेले का मुख्य आकर्षण जलझूलनी ग्यारस के दिन देव विमानों का विशाल जुलूस होता है। एक दर्जन अखाडे़, शारीरिक करतब व मल्ल विद्या तथा शस्त्र संचालन का प्रदर्शन करते चलते है। कीर्तन-भजन मंडलियां भी जुलूस मे रहती हैं। लगभग 54 देव विमानों का जुलूस गाजे-बाजों के साथ निकलता है। प्रत्येक विमान में देव प्रतिमाएं होती हैं तथा इन्हें डोल भी कहते हैं। कुछ मन्दिरों के विमान विशालकाय होते है।
ब्रह्माणी माता का मेला
बारां से व अन्ता से एक मार्ग सांगोद-सोरसन होकर जाता है। बारां से लगभग 20 किलोमीअर दूर सोरसन गांव के निकट एक पुराना किला है। इसी मे ब्रह्ााणी माता का मेला लगता है। हाड़ौती का यह एक मात्र गधों का मेला है। माघ शुक्ला सप्तमी को लगने वाले इस मेले में अन्य पशुओं का भी क्रय-विक्रय होता है।
पिपलोद का क्रिसमस मेला
जिले में अटरू तहसील के अन्तर्गत ईसाई धर्मावलम्बी बहुत ग्राम पिपलोद में जिले का एकमात्र चर्च है जहां पर क्रिसमस पर्व पर 25 दिसम्बर को मेला लगता है। लगभग एक सप्ताह तक चलने वाला यह मेला ईसाई मतानुयायियों का है। परन्तु आसपास के ग्रामीण अंचल के हिन्दू-मुस्लिम भी इस मेले में भाग लेकर सर्व धर्म समभाव की पुष्टि करते हैं।
मऊ का वसन्त पंचमी मेला
मांगरोल कस्बे के निकट मऊ के वसन्त पंचमी का मेले की भी लेकख्याति है। ग्रामीण अंचल में मांगरोल तहसील के ग्रामीणों में इस मेले के प्रति श्रद्धा है।
गूगोर माता का मेला
मूसेन माता, बिसोती माता व बिछालस माता के मेले भी लोक श्रद्धा के केन्द्र हैं। मातृसप्तमी पर जिले में मायता, सम्बलपुर, भूण्डली, बोरदा चैकी आदि स्थानों पर कालाजी जैसे भैरव स्थानों पर भी मेले लगते हैं। तेजादशमी पर जलौदा मोठपुर का मेला, कार्तिक पूर्णिमा पर नागदा, कपिलधारा-उमरदा, जगन्नाथपुरा, रामगढ़ आदि स्थानों पर तीर्थ मेले लगते हैं।