अलवर की संगीत कला
कलाओं की साधना और विकास में इस जिले के कलाकारों को अपनी देन रही है। यहां की संगीत परम्परा को दरबारी संगीत और लोक संगीत मे विभाजित किया जा सकता है। दरबारी संगीत में गणगौर, तीज, होली, दिपावली जैसे पर्व तथा विवाह और अन्य मांगलिक अवसरों पर आयोजित संगीत महफिलों में गुणीजनखाने से संबद्ध संगीतज्ञों द्वारा अपनी प्रतिभा का सार्वजनिक प्रदर्शन आता है। इस संगीत में घराना गायकी का प्राधान्य रहा। संगीत परम्परा के दूसरे अंग में यहां लोक संगीत एवं लोक नृत्य प्रमुख है। खयाल, रतवाई (मेव जाति का लोक संगीत) और ढप्पाली आदि ऐसे ही राग है जिन्होंने अलवर के लोक संगीत को समृद्ध किया।अलवर में भपंग वाद्ययंत्र राजस्थानी लोकगीत की पहचान है। यह मेवाती संगीत संस्कृति की धरोहर है। इस वाद्ययंत्र के उस्ताद जहुर खान मेवाती माने जाते है। भारतीय सिनेमा के अलावा उन्होंने देश से बाहर भी अपनी कला का प्रदर्शन किया। भपंग बजाने वाले सभी कलाकार यह मानते हैं कि इस वाद्ययंत्र की उत्पति शिव के डमरू से हुई है।