अलवर का साहित्य
अलवर की साहित्य साधना भक्ति परम्परा, रीति परम्परा और आधुनिक साहित्य में विभाजित की जा सकती है। लोक भाषा और बोलियों में रचा साहित्य इस परम्परा का दूसरा अंग है। जिले के प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण वन अंचलों में स्थित पर्वतीय कन्दराएं प्राचीन काल से ही ऋषि—मुनियों, तपस्वियों और साधकों की तपोस्थली रही है। योगीराज भतृहरि ने उज्जैन से आकर यहीं तपस्या की और यह भी माना जाता है कि उन्होंने यहीं बैठकर अपने अनुभवों को शतक के रूप में अंकित किया।
इसके अतिरिक्त जिले में कितने ही ऐसे प्राचीन स्थल और हैं जहां ऋषियों ने तपस्या के साथ साहित्य सृजन किया है। पौराणिक तथ्यों के अनुसार नागलवनी, अंगारी, विजयपुरा, तालवृक्ष और थानागाजी क्रमश: भंडीर, अंगीरा, लौमश, मांडव्य तथा पाराशर ऋषि के स्थान रहे हैं। मध्यकाल की संत परम्परा में जिले में कुछ ऐसे सन्त भी हुए हैं जिन्होंने अलवर को साहित्यिक दृष्टि से अमर बना दिया है। इन सन्त शिरोमणियों में लालदास, चरणदास, सहजोबाई, दयाबाई, अलीबक्श और रणजीत सिंह बेनामी व बख्तेश आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार रीतिकालीन परम्परा के प्रमुख कवियों में भोगीलाल, मुरलीधर, हरिनाथ, ब्रह्मभट्ट, पूर्णमल, आन्नदीलाल जोशी, जगन्नाथ अवस्थी, माधव कवि, चन्द्रशेखर वाजपेई, चन्द्रकलाबाई और जयदेव के नाम गिनाए जा सकते हैं।