वीरातरा माता का मंदिर (Viratara Mata Temple)
बाड़मेर से लगभग 48 किलोमीटर दूर चौहटन एवं चौहटन से करीब दस किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में लाख एवं मुदगल के वृक्षों के बीच रमणीय पहाड़ों की एक घाटी में वीरातरा माता का मंदिर विद्यमान है। इसे चार सौ वर्ष पुराना बताया जाता है। इस स्थान पर एक ओर बालू रेत का विशाल टीला है तथा दूसरी ओर पहाड़ी चट्टानें अपना सिर उठाए हुए हैं। यहां मंदिर के अलावा द्वादश पूजनीय स्थान, समाधिस्थल, कुण्ड औश्र यात्रियों के लिए विश्राम स्थल भी बने हुए हैं। यह स्थान कभी भाटी राजपूतों द्वारा आक्रमण किया जाकर पूजित हुआ। यहां चैत्र, भाद्र और माघ महीनों में शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को मेले लगते हैं। प्रसिद्ध शक्तिपीठ वांकल धाम वीरातरा माता का मंदिर कई शताब्दियों से भक्तों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। वीरातरा माता की प्रतिमा प्रकट होने के पीछे कई दंतकथाएं प्रचलित है। एक दंतकथा के अनुसार प्रतिमा को पहाड़ी स्थित मंदिर से लाकर स्थापित किया गया। अधिकांश लोगों का कहना है कि यह प्रतिमा एक भीषण पाषाण टूटने से प्रकट हुई थी जिसका प्रमाण वे उस पाषाण को मानते है जो आज भी मूलमंदिर के बाहर दो टुकड़ों में विद्यमान है। भाटी राजपूतों ने छह मील की सीमा में माता जी के बारह थान (स्थान) का निर्माण करवाया जो आज भी रोईडे का थान, तलेटी का थान, बेर का थान, तोरणिये का थान, मठी का थान, ढोक का थान, धोरी मठ वीरातरा, खिमल डेरो का थान, भीयड़ भोपे का थान, नव तोरणिये का थान एवं बांकल का थान के नाम से जाने जाते हैं। यहां की एक और विशेषता है कि वीरातरा माता को कुलदेवी मानने वाली महिलाएं न तो गूगरों वाले गहने पहनती है और न ही चुड़ला। जबकि आमतौर पर यहाँ अन्य जाति की महिलाएं इन दोनों वस्तुओं का अनिवार्य रूप से उपयोग करती है। पश्चिमी राजस्थान की इस शक्तिपीठ पर मेले में आम लोगों के साथ नवविवाहित जोड़े जात देने आते हैं।