अलवर का ऐतिहासिक परिदृश्य
अलवर जिला राजस्थान के अग्रणी जिलों में से एक है। इस आधुनिक शहर का इतिहास अति प्राचीन है। वैसे तो प्राचीन काल से ही यह नगर बसा हुआ है लेकिन महाभारत काल से इसका विधिवत इतिहास प्राप्त होता है। महाभारत युद्ध से पूर्व यहाँ राजा विराट के पिता वेणु ने मत्स्यपुरी नामक नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया था। राजा विराट ने अपनी पिता की मृत्यु हो जाने के बाद मत्स्यपुरी से 35 मील पश्चिम में विराट जिसे अब बैराठ के नाम से जाना जाता है, नगर बसाकर इस प्रदेश की अपनी राजधानी बनाया। इसी विराट नगरी से लगभग 30 मील पूर्व की ओर स्थित पर्वतमालाओं के मध्य सरिस्का में पाण्डवों ने अज्ञातवास में समय व्यतीत किया था। तीसरी शताब्दी के आसपास यहाँ गुर्जर प्रतिहार वंशीय क्षत्रियों का अधिकार हो गया। इसी क्षेत्र में राजा बाधराज ने मत्स्यपुरी से 3 मील पश्चिम में एक नगर तथा एक किला बनवाया। वर्तमान राजगढ़ दुर्ग के पूर्व की ओर इस पुराने नगर के अवशेष अब भी दृष्टिगोचर होते हैं। पाँचवी शताब्दी के आसपास इस प्रदेश के पश्चिमोत्तरीय भाग पर राज ईशर चौहान के पुत्र राजा उमादत्त के छोटे भाई मोरध्वज का शासन था।इसी ने इस क्षेत्र में राजधानी मोरनगरी का निर्माण किया था जो उस समय साबी नदी के किनारे बसी हुई थी। छठी शताब्दी में इस प्रदेश के उत्तरी भाग पर भाटी क्षत्रियों का अधिकार हो गया। राजौरगढ़ के शिलालेख से पता चलता है कि सन् 151 में इस प्रदेश पर गुर्जर प्रतिहार वंशीय सावर के पुत्र मथनदेव का अधिकार था, जो कन्नौज के भट्टारक राजा परमेश्वर क्षितिपाल देव के द्वितीय पुत्र श्री विजयपाल देव का सामन्त था। इसकी राजधानी राजपुर थी। 13वीं शताब्दी से पूर्व अजमेर के राजा बीसलदेव चौहान ने राजा महेश के वंशज मंगल को हराकर यह प्रदेश निकुम्भों से छीन कर अपने वंशज के अधिकार में दे दिया। पृथ्वीराज चौहान और मंगल ने ब्यावर के राजपूतों की लड़कियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। सन् 1205 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चौहानों से यह देश छीन कर पुन: निकुम्बों को दे दिया। 1 जून 1740 रविवार को मौहब्बत सिंह की रानी बख्त कुँवर ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रताप सिंह रखा गया। इसके पश्चात् सन् 1756 में मौहब्बत सिंह बखाड़े के युद्ध में जयपुर राज्य की ओर से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। राजगढ़ में उसकी विशाल छतरी बनी हुई है। मौहब्बत सिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र प्रतापसिंह ने 1775 ई. को अलवर राज्य की स्थापना की।
ब्रिटिश गैज़ेटर के अनुसार अलवर का क्षेत्र इन निम्नलिखित राजपूत शाखाओं के प्रभुत्व के अनुसार बटा हुआ था ।
1. राठ क्षेत्र – इस क्षेत्र पर संकट गोत्र के चौहान राजपूतो का राज्य था जो आज का नीमराणा और बहरोड़ का क्षेत्र है ।
2. वई क्षेत्र – इस क्षेत्र पर शेखावत राजपूतो का प्रभुत्व था आज का यह बहरोड़ और थाना गाज़ी का क्षेत्र कहलाता है।
3. नरुखंड़ – इस क्षेत्र पर नरुका और राजावत राजपूतो का प्रभुत्व हुआ करता था। अलवर के सभी राजा इस क्षेत्र से थे ।
4. मेवात क्षेत्र – इस क्षेत्र पर मेव जाति(मुस्लिम),गैर राजपूत जाति अधिक पाई जाती है।
राजस्थान राज्य में अलवर जिले का अपना ऐतिहासिक महत्व और गौरव है। बदले हुए भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में अलवर को समझने के लिए इसके इतिहास को प्राचीन, मध्य एवं आधुनिक काल में विभाजित किया जा सकता है। पौराणिक दृष्टि से अलवर जिला अपने प्राचीनतम सन्दर्भों में महापराक्रमी राजा हरिण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, प्रहलाद, सूर्यवंशी राजा बृहदाश्व अंबरीष, चन्द्रवंशी राजा उपरिचर तथा उनके वंशजों से जोड़ा जाता रहा है। कहा जाता है कि महाभारतकाल में अलवर उलूक के तथा तिजारा क्षेत्र त्रिगर्तराज सुशर्मा के आधिपत्य में था।
राजगढ़ के समीप माचेड़ी कस्बे में मत्स्यपुरी के नाम से राजा मत्सिल की राजधानी होने का भी उल्लेख मिलता है। मत्सिल के दूसरे पुत्र वनसैन के पुत्र को विराट भी कहा गया है। मत्सिल के दूसरे पुत्र वनसैन के पुत्र को विराट भी कहा गया है जिसके यहां पांडवों ने अपना एक वर्ष का अज्ञातवास बिताया था। आज के अलवर का विस्तार तिजारा से विराटनगर के मध्य है। राजोरगढ़ में प्राप्त शिलालेख से प्रमाणित होता है कि 9—10 वीं शताब्दी में अलवर जिले का दक्षिण भाग गुर्जर प्रतिहार राज्य में सम्मिलित था। उसके बाद चौहान शासक बीसलदेव के संक्षिप्त शासन के बाद इस क्षेत्र में क्षत्रियों का शासन रहा। निकुंभ क्षत्रियों के बाद इस क्षेत्र में खानजादों का शासन स्थापित हुआ। अलावलखां खानजादे ने निकुम्भ क्षत्रियों से यह भू—भाग छीनकर 1549 में अलवर दुर्ग का परकोटा बनवाया।
अलावलखां का पुत्र हसनखां मेवाती अलवर का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्तित्व था जिसने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी की ओर से तथा उसके बाद चित्तौड़गढ़ के राणा सांगा की ओर मुगल आक्रांता बाबर से जमकर लोहा लिया और खानवा के युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ। बाबर द्वारा यह क्षेत्र अपने पुत्र हिंदाल को और बाद में हुमायूं द्वारा अपने सेनानायक तुर्दीवेग को दिया गया। हसनखां मेवाती के भतीजे जमालखां की बड़ी पुत्री से स्वयं हुमायूं ने और उकी छोटी पुत्री से उसके सेनापति बहराम खां ने शादी की जिसकी कोख से हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि और अकबर के दरबारी नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना जो रहीम के नाम से प्रसिद्ध हुए ने जन्म लिया। अकबर के शासनकाल में उसके बहनोई मिर्जा शरफुद्दीन व औरंगजेब के राज्यकाल में मिर्जा राजा जयसिंह के अधीन यह क्षेत्र रहा। पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य के अन्तिम दौर में भरतपुर के जाट राजा सूरजमल और उसके पुत्र जवाहरसिंह के अधीन भी यह क्षेत्र रहा।
मुगल काल में पराभवकाल की राजनैतिक अस्थिरता के दौर में सन् 1775 में रावराजा प्रतापसिंह ने अलवर राज्य की स्थापना की। उनके परवर्ती शासक रावराजा बख्तावरसिंह, महाराजा विनयसिंह, सवाई शिवदानसिंह, सवाई मंगलसिंह, महाराजा जयसिंह और तेजसिंह ने राजस्थान निर्माण तक यहां शासन किया।
रियासती शासन के अन्तिम दौर में प्रजातन्त्री शासन व्यवस्था के लिए संघर्षरत प्रजामंडलों के अभियान और स्वाधीनता प्राप्ति के साथ देशव्यापी साम्प्रदायिक अशान्ति से उभरकर अंतत: 19 मार्च 1948 को अलवर, भरतपुर, करौली और धौलपुर रियासत को मिलाकर बनाए गए मत्स्य संघ में सम्मिलित हुआ एवं 22 मार्च 1949 को मत्स्य संघ के वृहद् राजस्थान में विलीनीकरण के साथ यह क्षेत्र राजस्थान राज्य के एक जिले के रूप में स्वतंत्र भारत की एक ईकाई बन गया।